यह जो फूल बरस रहे हैं, ये न्याय मिलने पर खुशी के फूलों की बारिश नहीं है। यह कानून और संविधान के जनाजे पर फूलों की बारिश है।

किसी कसाब, अफजल या कोली के लिए जब हम अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं, तब हमें उसकी परवाह नहीं होती, हमें बाकी जिंदा बचे 130 करोड़ लोगों की परवाह होती है। हमें चिंता होती है कि कहीं अधूरी न्यायिक प्रक्रिया किसी निर्दोष की जान न ले ले।

कानून किसी को इसलिए मारता है ताकि जिंदा लोगों की सुरक्षा हो सके। इसलिए अनिवार्य है कि कोई निर्दोष न मारा न जाए।

कैसे पता है कि हैदराबाद के आरोपी दोषी भी थे? अगर पुलिस ने दबाव में गलत लोगों को पकड़ा होगा तब? वे दोषी थे यह किसने जांच की? यह काम तो अदालत का था। इस देश मे तीन हफ्ते में ट्रायल करके फांसी और आजीवन कारावास दे देने का रिकॉर्ड अदालतों के नाम है। किसी भी केस में सरकार यह सुनिश्चित कर सकती है कि कुछ हफ्तों में ही ट्रायल पूरा हो जाए। लेकिन कानून को भीड़ के हवाले कर देने को मान्यता दी जा रही है और लोग खुश हैं।

वही भीड़ जो मांसाहार के बहाने अखलाक के साथ न्याय कर आई थी, अब वही महिला सुरक्षा के नाम पर कमान संभाल लेगी। गोरक्षा के बहाने गायों का जो हाल हुआ है, उसके बाद भी महिलाएं कहती हैं कि हमसे बेहतर तो गाय हैं। यह रूल ऑफ लॉ का फेल हो जाना है जो महिला पुरुष और हर नागरिक को मुसीबत में डालेगा।
कानून जहां भी फेल हो, समझिए कि आपके लिए एक गड्ढा और खोद दिया गया है।

जो बर्बरता एक लड़की के साथ की गई, पुलिस ने वही काम संविधान के साथ कर दिया। क्योंकि पुलिस उसे रोक नहीं सकी तो वह खुद ही जज और जल्लाद दोनों बन गई।

अगर वे दोषी थे तो उस बर्बर कृत्य की यह सही सजा है लेकिन क्या उस मामले में क्या ऐसे ही न्याय होगा जहां आरोप लगाने वाली को ही जेल भेज दिया गया? न्याय मांगिए, अंधी हिंसा नहीं।

आंख के बदले किसी की भी आंख निकाल लेने पर पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी और न्याय किसी को भी नहीं मिलेगा।

( ये लेख कृष्णकांत के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है )

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