14 फरवरी को न्यूज-18 उत्तर प्रदेश के शो ‘महाबहस’ का मुद्दा था ”परिवारवादी सोच+तमंचावादी काम= समाजवादी नाम?” वाक्य के अंत में लगा सवालिया निशान का इससे अश्लील दुरुपयोग नहीं हो सकता है। क्योंकि ये पत्रकारिता की कथित सुचिता का भौंडा दिखावा के अलावा और कुछ नहीं है।

न्यूज-18 उत्तर प्रदेश ने जिन दो विशेषणों को जोड़कर बराबर में समाजवादी लिखा है। वो दोनों विशेषण भाजपा द्वारा समाजवादी पार्टी के लिए इस्तेमाल किया जाता है। जाहिर है भाजपा और सपा राजनीतिक प्रतिद्वंदी है इसलिए वो ऐसा करते हैं। सपा भी भाजपा को किसान विरोधी, दलित विरोधी, पिछड़ा विरोधी बताती है, पूंजीपतियों की पार्टी कहती है।

लेकिन न्यूज-18 उत्तर प्रदेश तो राजनीतिक दल नहीं है। इसलिए उसकी समाजवादी पार्टी या किसी दल से कोई राजनीतिक रंजिश भी नहीं होनी चाहिए। फिर न्यूज-18 समाजवादी पार्टी को खुलेआम अपनी तरफ से परिवारवादी और तमंचावादी क्यों कह रहा है?

जहां तक परिवारवाद की बात है तो वो तमाम अन्य राजनीतिक दलों की तरह भाजपा में भी है। उदाहरण के लिए कुछ नाम का जिक्र कर देता हूँ। देश के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह नोएडा से भाजपा विधायक हैं। हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर भाजपा सांसद हैं। मोदी सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री और खेल मंत्री हैं। यूपी के पूर्व सीएम और राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह भाजपा सांसद हैं। कल्याण सिंह के ही पोते संदीप सिंह योगी सरकार में मंत्री हैं। लालजी टंडन के बेटे गोपालजी टंडन देवरिया से भाजपा विधायक हैं और योगी सरकार में मंत्री हैं…. लिस्ट लंबी है।

न्यूज-18 के मुद्दें में शामिल दूसरा विशेषण है तमंचावादी। यानी आपराधिक पृष्ठभूमि के नेता। तो अभी कुछ दिन पहले ही अन्य दलों की तरह भाजपा ने भी अपने प्रत्याशियों का आपराधिक रिकॉर्ड वेबसाइट और ट्विटर पर पोस्ट किया। भाजपा के 193 प्रत्याशियों में से 78 ऐसे हैं जिन पर क्रिमिनल केस हैं। वहीं सपा के 159 में से 70 प्रत्याशी आपराधिक बैकग्राउंड वाले हैं। अब तक सार्वजनिक किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि भाजपा ने सबसे अधिक दागियों को टिकट दिया है। यानी फिलहाल सबसे अधिक तमंचावादी प्रत्याशी भाजपा की तरफ से उतारे गए हैं।

यहां हमने समाजवादी पार्टी के सामने भाजपा को इसलिए रखा क्योंकि भाजपा सत्ता में है। और मीडिया के चरित्र में सत्ता से सवाल करना अधिक शामिल होता है। लेकिन जैसा की हम देख पा रहे हैं न्यूज-18 जैसा विकराल मीडिया समूह सिर्फ विपक्ष से सवाल कर रहा है।

अब सवाल उठता है कि जब परिवारवाद और तमंचावाद सत्ताधारी भाजपा में भी उपलब्ध है। तो न्यूज-18 द्वारा सिर्फ समाजवादी पार्टी को ऐसे शब्दों से अलंकृत क्यों किया जा रहा है। क्या ये सवाल खटकना स्वभाविक नहीं है?

तो आइए खोजने की कोशिश करते हैं कि आखिर क्यों न्यूज-18 पत्रकारिता के नाम पर सत्ता की पक्षकारिता कर रहा है। दरअसल टीवी मीडिया विज्ञापन की चाभी से चलने वाली गाड़ी है। उसी विज्ञापन के दम पर हजारों करोड़ की खर्च से चलने वाले चैनल दर्शकों को लगभग मुफ्त उपलब्ध होते हैं। मीडिया को ये विज्ञापन मिलता है सरकार और कॉरपोरेट्स से। यानी जो इन्हें विज्ञापन देता है ये उसके पक्ष मे खबर चलाते हैं। लेकिन मामला सिर्फ इतना भर भी नहीं है। और भी कुछ है जिसपर आगे बात करेंगे। फिलहाल विज्ञापन और उसके बदले चलने वाले न्यूज को समझ लेते हैं।

तो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अप्रैल 2020 और मार्च 2021 के बीच टीवी न्यूज़ चैनलों पर विज्ञापन के लिए 160.31 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। इसमें से 88.68 करोड़ रुपए का विज्ञापन ‘नेशनल टीवी न्यूज़ चैनल्स’ को दिया गया है। 71.63 करोड़ रुपए का विज्ञापन ‘क्षेत्रीय टीवी न्यूज़ चैनल्स’ को दिया गया है।

अब सबसे दिलचस्प बात। इस 160.31 करोड़ रुपए के विज्ञापन का सबसे बड़ा हिस्सा न्यूज-18 की झोली में गया है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, योगी आदित्यनाथ की सरकार ने सबसे ज़्यादा विज्ञापन राशि मुकेश अंबानी के स्वामित्व वाले चैनल ‘न्यूज़ 18’ ग्रुप को दिया है। अंबानी और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की अंतरंगता जग जाहिर है।

PC- न्यूजलॉन्ड्री

योगी सरकार ने ‘नेटवर्क 18’ ग्रुप के चैनल, सीएनएन न्यूज़-18, न्यूज 18 इंडिया और न्यूज 18 यूपी-उत्तराखंड को 28.82 करोड़ रुपए का विज्ञापन दिया था। क्या पैसों का यही बोझा है जिसके नीचे दबकर ‘न्यूज-18 उत्तर प्रदेश’ समाजवादी पार्टी को परिवारवादी और तमंचावादी कह रहा है? क्या विज्ञापन के भार और अंबानी-भाजपा के मित्रवत् व्यवहार के कारण न्यूज-18 सत्ता से सवाल नहीं पूछ पा रहा है?

दरअसल ये एक नेक्सस है। कॉरपोरेट्स को अपना बिजनेस ग्रो करने के लिए एक स्टेबल (स्थिर) सरकार चाहिए होती है। एक ऐसी सरकार जो कॉरपोरेट के फेवर में नीति बनाए। इसलिए कॉरपोरेट्स राजनीतिक दलों में पैसा निवेश करते हैं। फिर यही कॉरपोरेट्स मीडिया में भी पैसा निवेश करते हैं। अब कॉरपोरेट्स को जिस सरकार से फायदा होता है उसके समर्थन में खबर चलवाते हैं।

सरकार को भी अपनी अच्छी और मजबूत छवि दिखाने के लिए मीडिया की जरूरत होती है इसलिए सरकार भी मीडिया समूहों को विज्ञापन के रूप में पैसा देती है। इस तरह ‘खबर’ सरकार और कॉरपोरेट्स की ऊंगलियों पर नाचते हुए आपके सामने पहुंचती है। जबकि न्यूज़ इनफार्मेशन पब्लिक इंट्रेस्ट में होना चाहिए। जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था प्रो-पीपल होनी चाहिए, ठीक वैसे ही न्यूज भी प्रो-पीपल होनी चाहिए। क्योंकि बिना जागरूक नागरिक के डोमोक्रेसी चल ही नहीं सकती… यही वजह की डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत लगातार पिछड़ रहा है।

हालांकि भारत में विज्ञापन के अलावा एक और वजह है जिसके कारण यहां खबरें निष्पक्ष नहीं रहतीं। भारत में रुपए पैसों से भी एक बड़ी चीज है- जाति। भारतीय न्यूज रूम्स में डायवर्सिटी नाम की चीड़िया नहीं पायी जाती है। भारत के समाचार जगत को हिन्दू सवर्ण पुरूष चला रहे हैं। इस बारे में ढेर सारे सर्वे और शोध हो चुके हैं। लगभग सभी मुख्यधारा के न्यूज चैनल्स के 10 में से आठ महत्वपूर्ण टीवी शो के एंकर सवर्ण हैं। ये हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के चैनलों का हाल है। ऐसे संस्थानों में लीडरशिप पोजि़शन पर सौ फीसदी सवर्ण समुदाय के लोग मौजूद है। भारतीय मीडिया में दलित, आदिवासी और पिछड़े नगण्य हैं।

ऐसे में दलितों, पिछड़ों की राजनीति करने वाले नेताओं के लिए सम्मानजनक शब्द का इस्तेमाल ये सवर्ण मीडिया करे भी तो कैसे ? दलित पिछड़े नेताओं के सत्ता में रहने और विज्ञापन देने के बावजूद ये मीडिया उन्हें जलील करता है। न्यूज़-18 उत्तर प्रदेश ने जिन शब्दों का इस्तेमाल समाजवादी पार्टी के लिए किया है…उसकी मंशा को इन तथ्यों के बिना नहीं समझा जा सकता है।

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