2017 में वस्तु एवं सेवा कर (GST) को लागू करते हुए मोदी सरकार ने इसे देश की आर्थिक क्रांति बताया था। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसे लेकर बड़े-बड़े दावे किये थे और ये कहा गया था कि इसके कारण कुछ हो या ना हो लेकिन टैक्स तो ज़रूर बढ़ेगा।

टैक्स को बढ़ाना भाजपा के पहले के वादों के तहत भी ज़रूरी था क्योंकि उसने देश में कालाधन को ख़त्म करने का वादा किया था और उसके लिए ये बहुत ज़रूरी है कि लोग टैक्स के दायरे में आएं और व्यवस्था से जुड़े। लेकिन GST लागू होने के बाद कठिनाईयां भी हुई और टैक्स का दायरा भी पहले के मुकाबले नहीं बढ़ा।

2006-07 से 2011-12 के बीच टैक्स कलेक्शन में सालाना 16.5 परसेंट बढ़ोतरी हुई। लेकिन 2012-13 से 2017-18 के बीच ये घटकर सिर्फ 13.8 परसेंट ही रह गई।

अगर यह मान लें कि एनडीए सरकार में जीडीपी ग्रोथ यूपीए सरकार के मुकाबले ज्यादा तेज रही तो उसका असर टैक्स कलेक्शन पर क्यों नहीं दिखा?

यूपीए की सरकार के बारे में ये कहा गया कि ये ‘खाओ और खाने दो’ वाली सरकार है इसलिए देश में भ्रष्टाचार ज़्यादा, विकास नहीं हो रहा है और सरकारी खज़ाने पर भी इसका असर पड़ रहा है।

लेकिन अब जो तथ्य सामने आया है उस से पता चला है कि यूपीए के कार्यकाल में लोग वैध व्यवस्था से ज़्यादा जुड़े जबकि मोदी सरकार के कार्यकाल में GST लाने के बावजूद लोग कम संख्या में टैक्स व्यवस्था का हिस्सा बने।

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