आने वाले 15 अगस्त को भारत अपनी 72वीं स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। लेकिन इस राजनीतिक स्वतंत्रता की खुशी मनाते हुए देशवासियों को सोचना चाहिए कि क्या आज़ादी के बाद उन्होंने कोई सामाजिक परिवर्तन किया ? और अगर नहीं तो क्यों नहीं किया ?

पूर्वजों की मेहनत से मिली आज़ादी को सेलिब्रेट करना अच्छी बात है। लेकिन खुद कोई सामाजिक परिवर्तन न ला पाना निठल्लापन ही कहलाएगा। आज़ादी के 72 साल बाद भी भारतीय समाज जातिवाद से बुरी तरह ग्रस्त है। आज भी दलित शोषण, अत्याचार, भेदाभाव का शिकार हो रहे हैं।

ताजा उदाहरण राजस्थान के चित्तौडग़ढ़ जिले के लक्ष्मीपुरा गांव में देखने को मिला है। इस गांव में मंगलवार (19 फरवरी) की रात दलित युवती की बिन्दौली पर जातिवादी सवर्णों ने पत्थर फेंके। दरअसल लक्ष्मीपुरा निवासी नाथूलाल भांबी के बेटी की ‘बिन्दौली’ निकल रही थी।

इसी दौरान गांव के 10 सवर्ण युवकों ने बिन्दौली पर पत्थर फेंकना शुरू कर दिया। बिन्दौली में शामिल परिवार के लोग कुछ समझ पाते, इससे पहले ही सवर्ण युवकों ने दुल्हन के भाई रमेश और शिवलाल पर लाठियों से वार कर दिया। दोनों भाईयों के हाथ फ्रेक्चर हो गया है। घर के मुखिया नाथूलाल को इतना पीटा गया है कि वो अस्पताल में भर्ती हैं।

अब सवाल उठता है कि अगर आज़ादी के 72 साल बाद भी समाज इस हद तक जातिवाद से ग्रस्त है तो किस बात के लिए आज़ादी का जश्न? सत्ता में कोई भी जातिवाद यथावत बना रहता है। फिलहाल राजस्थान में कांग्रेस का शासन है, इससे पहले बीजेपी का था।

पहले भी ऐसी घटनाएं समाने आ चुकी हैं और अभी आ रही हैं। इससे तो यही साबित है कि दोनों पार्टियों में ही कुछ गड़बड़ है जिसकी वजह से राजस्थान जातिवाद से मुक्त नहीं हो पाया! क्या कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टियों में ज्यादातर सवर्ण नेता हैं, इसलिए राजस्थान जातिवाद से ग्रस्त हैं। पूरे भारत का भी यही हाल। इन्हीं दो पार्टियों के नेताओं ने केंद्र की सत्ता भी संभाली है।

एक सवाल और… खुद को सामाजिक पुराधा कहने वाली जातीयों ने समाज से जातिवाद को खत्म क्यों नहीं किया ? जो जातीयां खुद जातिवाद का शिकार थी, उनसे ऐसी उम्मीद करना तो धूर्तता होगी। आरक्षण के खिलाफ मुहीम चलाने वाली जातीयों ने जातिवाद के खिलाफ आंदोलन क्यों नहीं किया?

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