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सिद्धार्थ रामू

मेहनतकशों के प्रति निर्ममता, निष्ठुरता और क्रूरता के कंपा देन वाले दृश्य

Image Credit: Supriya Sharma, Scroll

देश के कोने-कोने से मेहनतकशों के अभाव एवं अपमान के ऐसे दृश्य सामने आ रहे हैं, जिन्हें देख कोई भी इंसान शर्म से झुक जाए। देश की राजधानी दिल्ली में निगमबोध घाट पर फेंके गए केलों के बीच अपने खाने लायक केले बिनते मजदूर, यमुना ब्रिज के नीचे जानवरों की तरह लेटे मजदूर- जिसमें स्त्री-पुरूष दोनों शामिल हैं। पेट भरने लायक खिचड़ी पाने के लिए घंटों लाइन लगाए मजदूर, मुंबई में एक-एक कमरे में पचासों की संख्या में ठुसे मजदूर, जिन्हें दिनभर में किसी तरह एक बार खाना मिल पा रहा है, पीने के पानी तक की दिक्कत है। सूरत में तख्ती लटकाए खाना मांगते मजदूर। दिल्ली में कश्मीरी गेट से अलग-अलग जगहों पर भेजे रहे भूख-प्यासे मजदूर।

ये वो लोग हैं, जिन्होंने वह सारा अन्न उगाया है, जो भारत सरकार के गोदामों भरा सड़ रहा है, ये वे लोग हैं, जिन्होंने वे सारे लाखों घर बनाएं हैं, जो खाली पड़े हैं, ये वे लोग हैं, जिन्होंने पीने के पानी की पाइपें विछायी हैं, लेकिन खुद पीने के लिए तरस रहे हैं।

कितने निर्मम, निष्ठुर और क्रूर हैं, भारत के शासक। जो अपने कार्पोरेट मित्रों के लिए भारत सरकार का खजाना खोल देते हैं, लेकिन जिनकी मेहनत से यह खजाना भरा है, खाद्यान्न भंडार भरे हैं, वे भूखे और बेहाल हैं। उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है, सिर्फ बातें और तमाशा हो रहे हैं।

जिन्होंने सबकुछ पैदा किया, जिनके मेहनत से भारत का खाद्यान्न भंडार भरा पड़ा है, भारत का खजाना भी जिनकी मेहनत से भरा है, उन्हीं लोगों में से मुट्ठी भर लोगों को भीख के रूप में रोटी के कुछ टुकड़े या अन्न का कुछ दाना देकर उच्च मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के कुछ लोग दाता बने फिर रहे हैं।

मेहनतकशों के प्रति यह क्रूरता कोई नई नहीं है। यह ब्राह्मणवादी संस्कृति के मूल लक्षणों में एक सबसे बड़ा लक्षण है और पूंजीवाद का भी यही नियामक तत्व है।

मेहनतकशों के प्रति भारत के शासक आर्य-ब्राह्मण-द्विज कितने क्रूर, निर्मम और निष्ठुर रहे हैं, इसका साक्ष्य ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन, तुलसीराम की आत्मकथा मुर्दहिया और प्रेमचंद के गोदान एवं सदगति जैसी रचनाओं और मेहनतकशों के खिलाफ मनुस्मृति के कठोर प्रावधानों से लगाया जा सकता है। मनुस्मृति यहां तक कहती है कि मेहनतकशों ( शूद्रों) को जूठन दिया जाना चाहिए, इससे भी आगे बढ़कर मनुस्मृति शूद्रों को द्विजों द्वारा की गई उलटी खाने और उनके फटे-पुराने कपड़े पहने के लिए कहती है। यह सब केवल प्रावधान नहीं था, वास्तविक जीवन की सच्चाई थी। मरे जानवरों का मांस ( जिन्हें न पता हो,वे मुर्दहिया-जूठन पढ़ें) सबकुछ पैदा करने वाले अन्त्यजों ( अतिशूद्रों) को ही खाना पड़ता था।

आर्य-ब्राह्मण-द्विज संस्कृति के वारिस आज देश की सत्ता पर हैं और जिन्होंने मेहनतकशों के प्रति अपने जन्म से ही निर्मम पूंजीवाद से पूरी तरह गठजोड़ कर लिया है।

मेहनतकशों के दोनों दुश्मन- ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद ( डॉ. आंबेडकर के अनुसार भी )- पूरी तरह एक हो गए हैं।

वक्त का तकाजा है कि कोरोना के खिलाफ आज की लड़ाई के साथ मानवता के दुश्मन ब्राह्मणवाद-पूंजीवाद के विनाश और एक नए समाज निर्माण के बारे में भी सोचा जाए। जिस समाज में निर्णायक वे लोग हों, जो सबकुछ अपनी मेहनत से पैदा करते हैं, न कि बैठे-ठाले मेहनतकशों का खून चूसने वाले और उन्हें अपमानित करने वाले निठल्ले परजीवी।

डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि ब्रिटिश शासकों के जाने के बाद भारत की सत्ता ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ के हाथ में आई। आज ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ ही देश की सत्ता पर काबिज है। आज संघ-भाजपा ( ब्राह्मण-द्विजों के प्रतिनिधि) और कार्पोरेट ( मुकेश अंबानी- अडाणी-बनिया ) के गठजोड़ के रूप में इसे देखा जा सकता है।

मेहनतकशों को ब्राह्मणवाद-पूंजीवाद के गठजोड़ के वर्चस्व से मुक्ति के बिना अभाव और अपमान से भी मुक्ति नहीं मिल सकती है।

आइए कोरोना से लड़ने के साथ एक खूबसूरत नई दुनिया के निर्माण के बारे में भी सोचा जाए।

(ये लेख पत्रकार एवं लेखक सिद्धार्थ रामू के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है। लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं)

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