गोडसे देशभक्त था इनके लिये क्योंकि इनका देश अलग है।

इनका हिन्दुस्थान संविधान से चलने वाला भारत नहीं है। इनके लिए देश का अर्थ हिन्दू राष्ट्र था, जिसमें लोकतंत्र की कोई जगह नहीं होनी थी। एक देश एक नेता यानी तानाशाही इनका मूलमंत्र है। गोलवलकर बार-बार हिटलर की तारीफ़ यों ही नहीं करते।

गोलवलकर या सावरकर को पढ़िये। वहाँ ग़ैर हिन्दू दूसरे दर्ज़े के नागरिक होने थे। इसीलिए अंग्रेजों से नहीं थी समस्या इन्हें। मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट इनके घोषित शत्रु थे। इन्हें मनुस्मृति आधारित सवर्ण हिन्दुओं का राष्ट्र बनाना था। अम्बेडकर शत्रु थे।

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गांधी की हत्या ही नहीं आज़ादी के वक़्त फैले दंगों के सहारे प्लान था हिन्दू राष्ट्र का। लेकिन सफल नहीं हुआ तो लोकतंत्र का फ़ायदा उठाकर कोशिश की गई और आर एस एस समाजसेवा की आड़ में यह राजनीति करता रहा।

सावरकर इस नीति से सहमत नहीं थे, कहते थे संघियों की क़ब्र पर लिखा होगा – ये जन्में, इन्होंने शाखा लगाई, बैठक की, भोजन किया, मर गए। तो वह हिन्दू महासभा और अभिनव भारत से जुड़े। याद रखिये उनकी बहू हिमानी सावरकर अभिनव भारत से ही है। हालांकि नागपुर पुणे से बड़ा होता गया और बाद में दोनों की दूरी भी घटती दिखती है।

तो पुणे गैंग की प्रज्ञा के लिए आदर्श तो गोडसे ही होगा। है तो नागपुर के लिए भी लेकिन लोकतंत्र की आड़ में काम करने की प्रैक्टिस के कारण वे खुलकर नहीं बोलते।

(ये टिप्पणी चर्चित किताब ‘कश्मीरनामा’ के लेखक अशोक कुमार पांण्डेय की फेसबुक वॉल से ली गई है)

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