पिछले कुछ सालों से मीडिया ने सेकुलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्षता को बुराई के रूप में प्रस्तुत करना शुरू किया। पहले चरण में मीडिया ने कांग्रेस, सपा, बसपा, आरजेडी और टीएमसी समेत तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं पर हमला बोलने के लिए सेकुलरिज्म का नकारात्मक प्रस्तुतीकरण किया।

दूसरे चरण में सामाजिक कार्यकर्ताओं और तमाम संगठनों को निशाने पर लेकर सेकुलर खेमे में खड़ा होने के कारण देश विरोधी घोषित किया और अब तीसरे चरण में धार्मिक राष्ट्रवाद का गुणगान करना शुरू कर दिया है इसिलए हिंदू राष्ट्र के पक्ष में डिबेट और लेख दिखने लगे हैं।

मीडिया एक ऐसे समाज का निर्माण कर रहा है जहां धर्मनिरपेक्षता को ताक पर रखकर हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना को सुनहरा बताने की होड़ मची है।

तभी तो हिंदुस्तान अखबार बड़ी बेशर्मी से अपने प्रयागराज संस्करण में पहले पेज पर हिंदू राष्ट्र की कामना वाला विज्ञापन छापा है। हालांकि पेज पर कहीं भी ये तक नहीं बताया गया है कि ये विज्ञापन है।

यानी अखबारों की धूर्तता न समझने वाले किसी व्यक्ति को ये गलतफहमी हो सकती है कि प्रथम पृष्ठ पर ऐसी खबर बनाई गई है कि हिंदू राष्ट्र की कामना के लिए यज्ञ हो रहा है।

खैर किसी धार्मिक राष्ट्र की कल्पना विश्व हिंदू पीठ के अतुल द्विवेदी करें या हिंदुस्तान अखबार की मालिक शोभना भारतीय या फिर संपादक शशि शेखर, ऐसे संदेश से समाज मे सांप्रदायिकता ही घुलेगी।

इसके साथ ही उठने लगेंगे सवाल कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ होने का दावा करने वाले मीडिया का यह कैसा काम है कि संविधान विरोधी दावे का प्रचार प्रसार कर रहा है।

क्या इन्हें भारत के संविधान की प्रस्तावना तक नहीं मालूम है जिसमें साफ-साफ वर्णित है कि भारत एक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष और संप्रभु राष्ट्र है!

पत्रकारिता के मूल्यों को बहुत पहले ही खत्म कर चुके भारतीय मीडिया से एथिक्स की उम्मीद करना भी बेमानी ही है मगर कम से कम संविधान विरोधी कंटेंट का प्रचार-प्रसार करने से पहले इन्हें थोड़ा शर्मिंदा होना चाहिए।

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